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केन्द्र और राज्य के बीच विधायी संबंध

केन्द्र और राज्य के बीच विधायी संबंध (The legislative reation between central and state)


भारतीय संविधान निर्माताओं ने विश्व में प्रचलित व्यवस्था के  आधार पर संसद में दो सदनों की व्यवस्था की प्रथम सदन लोकसभा और द्वितीय सदन राज्यसभा । विश्व के अधिकांश देशों में द्विसदनात्मक व्यवस्था स्थापित है। 
संविधान निर्माताओं ने लोकसभा के साथ-साथ राज्यसभा को भी भूमिका प्रदान की। यही कारण है कि दोनों सदनों में शक्तियों के आवंटन में उन्होंने लोकसभा को अधिक शक्तिशाली बनाने का प्रयास किया तो वही इस बात का भी ख्याल रखा की राज्यसभा की भूमिका बिल्कुल गौण न रह जाए।  इसलिए उन्होंने दोनों सदनों में शक्तियों का आवंटन निम्नलिखित रूप से किया- 
  1. कुछ शक्तियाँ केवल लोकसभा को प्रदान की गई है ।
  2. कुछ शक्तियाँ केवल राज्यसभा को प्रदान की गई है ।
  3. कुछ मामलों में दोनों सदनों को मिली-जुली शक्तियाँ दी गई है ।

लोकसभा की शक्तियाँ 

संविधान के अनुच्छेद 72(3) में  संघीय मंत्रिपरिषद को सामूहिक रूप से उत्तरदायी माना गया है। और लोकसभा के प्रसादपर्यन्त ही मंत्रिपरिषद सत्तारूढ़ रह सकती हैं। यानि जिस दल को लोकसभा में बहुमत प्राप्त होता है उस दल का नेता ही प्रधानमंत्री के पद पर नियुक्त किया जाता है। और उसे ही मंत्रिपरिषद्  का गठन  करने के लिए आमंत्रित किया जाता है।
इसका मतलब है कि प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद तब तक बने रहते है जब तक लोकसभा का विश्वास उन्हें प्राप्त हैं। 

लोकसभा के द्वारा ही अविश्वास प्रस्ताव को पारित कर मंत्रिपरिषद को पदच्युत किया जा सकता है। राज्यसभा को मंत्रिपरिषद के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव को पारित करने का अधिकार नहीं हैं। 

धन-विधेयक के क्षेत्र में भी लोकसभा को ही अधिकार प्रदान किये गये हैं। कोई विधेयक धन-विधेयक है या नही इसको लोकसभा का अध्यक्ष ही प्रमाणित करता है। धन-विधेयक लोकसभा में पारित किये जाते हैं और वही पर पुनः स्थापित भी किये जाते हैं। धन-विधेयक पारित होने के पहले उसे राज्यसभा में प्रेषित किया जाता है। प्राप्ति के चौदह दिन के भीतर राज्यसभा अपनी अनुशंसा के साथ उसे लोकसभा को लौटा देती है। लोकसभा उन अनुशंसा को स्वीकार या अस्वीकार कर सकती हैं। 

यदि चौदह दिन के भीतर राज्यसभा उस विधेयक को पारित नहीं करती है या नहीं लौटाती है तो वह उसी रूप में संसद द्वारा पारित मान ली जाती है जिस रूप में लोकसभा ने उसे पारित किया था। 

राज्यसभा की शक्तियाँ 

संविधान द्वारा राज्यसभा को कुछ ऐसे अधिकार प्रदान किये गये है जो लोकसभा को प्राप्त नहीं है। 
  • अनुच्छेद-249 के अंतर्गत राज्यसभा को यह अधिकार है कि वह उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो तिहाई (2/3) बहुमत और कुछ सदस्यों के पूर्ण बहुमत से राज्य सूची के किसी विषय को राष्ट्रीय महत्व घोषित करके उस पर कानून बनाने का अधिकार संसद को दे सकता है। यह कानून एक वर्ष के लिए ही प्रभावित रहता है और यदि राज्यसभा चाहे तो हर बार इसे एक वर्ष के लिए बढ़ाया जा सकता है।
  • संविधान के अनुच्छेद- 312 के अनुसार राज्यसभा की अनुमति से देश के भीतर अखिल भारतीय सेवाओं का विस्तार किया जा सकता है और नई अखिल भारतीय सेवाओं की स्थापना हो सकती है।
  • उपराष्ट्रपति को हटाने का प्रस्ताव राज्यसभा में ही उपस्थित किया जा सकता है।
  • लोकसभा के विघटन की स्थिति में आपात उद्घोषणा को जारी करने के लिए राज्यसभा का अनुमोदन आवश्यक है।

दोनों सदनों की मिली-जुली शक्तियां 

दोनों सदनों की अपनी अलग-अलग शक्तियां है इसके बावजूद कुछ ऐसी शक्तियां है जिसका प्रयोग दोनों सदनों को मिल-जुली करना होता है। यानि संविधान ने दोनों सदनों को समान का दर्जा दिया है। जैसे- साधारण विधेयक और सार्वजनिक संशोधन के सम्बन्ध में दोनों सदनों की मिली-जुली शक्ति प्राप्त है। 
इसके अलावा राष्ट्रपति के चुनाव में और राष्ट्रपति पर महाभियोग,  राष्ट्रपति का निर्वाचन,  सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को अपदस्थ करने, संचालन उद्घोषणा के अनुमोदन आदि में दोनों सदनों का समान अधिकार है।संविधान में मंत्रिपरिषद के मंत्रियों के चयन में दोनों सदनों में कोई भेद नहीं किया गया है, कुछ मंत्री सामान्यतः  राज्यसभा से भी लिये जाते है।

दोनों सदनों में विवाद और समझौता 

प्रायः दोनों सदनों के सम्बंध मधुर ही रहे है। लेकिन कई बार दोनों में टकराव की स्थिति उत्पन्न हुई है।

पहली घटना

 1953 में उत्पन्न हुई। जब तत्कालीन वित्त मंत्री और राज्यसभा के नेता सी सी विश्वास ने सभा के कुछ सदस्यों के विचार से असहमति प्रगट  की। उन्होंने लोकसभा के अध्यक्ष द्वारा अप्रमाणित आयकर संशोधन विधेयक,  1952 को वित्त विधेयक मानने  पर आपत्ति प्रगट की। उनका मानना था कि अध्यक्ष ने इस प्रश्न पर पर्याप्त विचार किये बिना ही निर्णय दे दिया है। तब लोकसभा ने रोष में आकर यह माँग की कि श्री विश्वास सदन में उपस्थित होकर अपनी स्थिति और तर्कों को स्पष्ट करें। वही राज्यसभा ने एक प्रस्ताव पारित कर अपने नेता को लोकसभा में जाने से रोका।
पंडित जवाहरलाल नेहरु के बीच-बचाव और सामयिक हस्तक्षेप से स्थिति बिगड़ने से बची। 

दूसरी घटना 

दूसरी घटना भी 1953 में ही घटी, जब राज्यसभा ने एक प्रस्ताव पारित कर यह माँग की कि या तो राज्यसभा की एक अलग लोक लेखा समिति हो अथवा वर्तमान लोक लेखा समिति में उसके नये सदस्यों को प्रतिनिधित्व देकर उसे संसद की लोक लेखा समिति बना दिया जाये। लोकसभा ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किय, क्योंकि वित्तीय मामलों में लोकसभा का ही अकेला उत्तरदायित्व था। अन्त में प्रधानमंत्री नेहरू के हस्तक्षेप से यह बात तय हुई कि लोक लेखा समिति तो लोकसभा की ही समिति रहेगी। लेकिन इसमें सात सदस्यों को राज्यसभा मनोनीत करेगी।

तीसरी घटना 

1970 ई. में भूतपूर्व राजाओं को मान्यता देने से इन्कार करने वाला संविधान संशोधन विधेयक (प्रिवी पर्स उन्मूलन विधेयक) को लोकसभा ने भारी बहुमत से पारित कर दिया ।लेकिन राज्यसभा में आवश्यक बहुमत के अभाव में यह पारित नहीं हो सका।

चौथी घटना 

1978 ई. में लोकसभा द्वारा पारित बैंकिंग सेवा आयोग उन्मूलन विधेयक को अस्वीकृत कर दिया गया ।उसी प्रकार राज्यसभा ने 1977-78 के वार्षिक बजट में भी संशोधन कर दिया जिसे लोकसभा ने स्वीकार नहीं किया।

पांचवीं घटना 

अगस्त 1978 में ही राज्यसभा ने 45वें संविधान संशोधन विधेयक को उस रूप में पास नहीं किया जिस रूप में वह लोकसभा द्वारा पारित किया गया था। लोकसभा में एक भी मत इस विधेयक के विरोध में नहीं पड़ा। जबकि राज्यसभा ने उसके 5 महत्वपूर्ण खण्डों को अस्वीकार करते हुए विधेयक को पारित किया । लोकसभा को बाध्य होकर उन संशोधनों को स्वीकार करते हुए विधेयक को पारित करना पड़ा।

छठी घटना 

1980 ई. के आम चुनाव में लोकसभा में काँग्रेस (आई) का प्रबल बहुमत कायम हो गया, लेकिन राज्यसभा में यह पार्टी अल्पमत में  थी। फलस्वरूप राज्यसभा में प्रतिपक्ष ने राष्ट्रपति के भाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव में संशोधन करके ऐसे वाक्य जुड़वाये जिनमें सरकार की आलोचना थ। भारत के संसदीय इतिहास में यह पहला अवसर था जबकि धन्यवाद प्रस्ताव में कोई संशोधन किया गया ।

निष्कर्ष 

अतः  ऊपर दिये गये विवरण के आधार पर हम कह सकते हैं कि राज्यसभा और लोकसभा के सम्बन्ध सामान्य रूप से मधुर ही रहे हैं, फिर भी यदा-कदा दोनों सदनों के बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न होती रही है। ऐसा सम्भवतः तब होता है जब दोनों सदनों में एक ही दल का बहुमत नहीं रहता है ।

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